गरबा के मौज-मस्ती वाले रंग
नवरात्र के नौ दिन के उत्सव के दौरान हर तरफ गरबा और डांडिया डांस की धूम होती है। गरबा सौभाग्य का प्रतीक माना जाता है। गुजरात का यह पारंपरिक लोक नृत्य कभी सिर्फ गुजरात तक ही सीमित था, लेकिन अब यह देश के कई हिस्सों में अपनी धूम मचा रहा है। इसकी बड़ी वजह है, धार्मिक महत्व के अलावा इसके मौज-मस्ती वाले रंग। इसलिए इससे जुड़े आयोजनों में सभी आयु वर्ग के लोग बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हैं। युवाओं के लिए अपने संस्कृति से जुड़ने का सुनहरा अवसर होता है। वे पूरी रात डांडिया और गरबे की मस्ती में झूमते हैं। चौतरफा सिर्फ उत्सव का माहौल रहता है।
शक्ति की साधना और आराधना के पर्व शारदीय नवरात्रों को गरबा नृत्योत्सव के रूप में मनाया जाता है। गरबा और डांडिया नृत्य दुनिया भर के बड़े नृत्य त्योहारों में से एक हैं। नवरात्रों में शाम को डांडिया और गरबा नृत्य के जरिए मां दुर्गा की पूजा की जाती है। नवरात्रों की पहली रात्रि को कच्चे मिट्टी के सछिद्र घड़े, जिसे 'गरबो' कहते हैं, की स्थापना होती है। फिर उसके अंदर दीपक को प्रज्वलित किया जाता है, जो ज्ञान रूपी प्रकाश का अज्ञान रूपी अंधेरे के भीतर फैलाने प्रतीक माना जाता है।
महिलाएं कलश के चारों ओर एक लय व ताल के साथ गोलाकार में घूमते हुए झुकती, मुड़ती, तालियां या चुटकियां बजाती हुई नृत्य करती हैं। इस नृत्य के साथ देवी की स्तुति की जाती है और कृष्णलीला संबंधी गीत भी गाए जाते हैं। साथ में ढोलक या तबला बजाने वाले संगीत देते हैं। आरती से पहले सभी रसिक-जन गरबा के रंग में रंग जाते हैं। देवी के सम्मान में भक्ति प्रदर्शन के रूप में गरबा, 'आरती' से पहले किया जाता है और डांडिया समारोह उसके बाद। यह रात भर चलता है।
आरंभ में देवी के निकट सछिद्र घट में दीप ले जाने के क्रम में गरबा नृत्य होता था। यह घट दीपगर्भ कहलाता था। वर्णलोप से यही शब्द गरबा बन गया। डांडिया रास की शुरूआत के संबंध में एक किंवदंती प्रसिद्ध है। वर्षों पहले गुजरात में महिषासुर नामक राक्षस राज करता था। उसने अपने क्रूर व्यवहार से सारी जनता की नाक में दम कर रखा था। उसके आतंक से त्रस्त होकर आखिर सभी लोगों ने ब्रह्मा, विष्णु और महेश की सामूहिक आराधना की। देवताओं के प्रकोप से तब देवी जगदंबा प्रकट हुर्इं और उन्होंने उस राक्षस का वध किया। तभी से नवरात्रि के दौरान भक्तगण नौ दिन तक उपवास करने लगे और देवी के सम्मान में गरबा करने लगे। समय के साथ इसमें डांडिया भी जुड़ा और डांडिया-रास के रूप में इस लोकप्रिय नृत्य का उदय हुआ।
नौ दिन तक माता का पंडाल सजाया जाता है। युवक- युवतियां पारंपरिक वेशभूषा में गानों पर थिरकते हैं औरव डांडिया व गरबा खेलते है। गरबा में पहने जाने वाली इस पारंपरिक पोशाक को केडिया (बड़ा कुर्ता) कहते हैं। इसे सिर्फ लड़के पहनते हैं। केडिया के साथ पहने जाने वाले आभूषण को हसदी कहा जाता हैं। गरबा खेलने आईं लड़कियां पारंपरिक चनिया चोली पहनती हैं। इस विशेष परिधान का वज़न क़रीब पांच किलो होता है और यह पोशाक कई सजावटी चीज़ों से बनती हैं। इस कारण आधुनिक युवतियां चनिया चोली की जगह जींस के साथ शार्ट कुर्ती, डिजाइनर साड़ियां और लड़के जींस के साथ शार्ट कुर्ता, लॉग कुर्ते के साथ चूड़ीदार या पाजामा-कुर्ता ज्यादा पसंद कर रहे हैं।
बदलते समय के साथ-साथ गरबे में भी बहुत बदलाव आया है। आज इन नृत्यों के व्यावसायीकरण हो जाने के कारण इस नृत्य की वास्तविकता, पारंपरिकता और नाजुक लय, वैकल्पिक रूपों में गुम होती जा रही है। ढोल के धमाके और ढोलक की थापों का स्थान अब ड्रम और कांगों ने ले लिया है। हारमोनियम की मस्ती, शहनाई की गूंज और बांसुरी की मधुर धुन का स्थान इलेक्ट्रॉनिक सिंथेसाइजर ले चुके हैं।