जीवन की निरंतरता का प्रतीक क्रिसमस ट्री
क्रिसमस के मौके पर क्रिसमस ट्री का विशेष महत्व है। क्रिसमस की पूर्व संध्या पर क्रिसमस ट्री दुल्हन की तरह सजाया जाता है। इस पर बिजली के रंगबिरंगे बल्ब जगमगाते रहते हैं। खूबसूरत फूल भी इसको महकाते हैं। इसे मिठाइयों, केक, रिबन और कलरफुल कागज लगाकर सजाया जाता है। लोग इस सदाबहार पेड़ को जीवन की निरंतरता का प्रतीक मानते हैं। उनका विश्वास है कि क्रिसमस ट्री को घरों में सजाने से बुरी आत्माएं दूर रहती हैं। अमेरिका के अरबपति क्रिसमस ट्री की विशेष सज्जा के लिए कीमती आभूषणों का प्रयोग करते हैं। हीरे-मोती से जड़े आभूषण इसकी पतली-पतली टहनियों में पिरोए जाते हैं। बाद में इन आभूषणों को गरीबों में बांट दिया जाता है।
मॉडर्न क्रिसमस ट्री को सजाने की परंपरा जर्मनी में शुरू हुई। उस समय एडम और ईव के नाटक में स्टेज पर फर के पेड़ लगाए जाते थे। इस पर सेब लटके होते थे और स्टेज पर एक पिरामिड भी रखा जाता था। इस पिरामिड को हरे पत्तों और मबत्तियों से सजाया जाता था और सबसे ऊपर एक सितारा लगाया जाता था। बाद में 16वीं शताब्दी में फर का पेड़ और पिरामिड एक हो गए और इसका नाम हो गया क्रिसमस ट्री। उसके बाद जर्मनी के लोगों ने 24 दिसंबर को फर के पेड़ से अपने घर की सजावट करनी शुरू कर दी।
क्रिसमस ट्री को घर-घर पहुंचाने में मार्टिन लूथर का भी काफी हाथ रहा। कहते हैं कि क्रिसमस के दिन जब लूथर अपने घर लौट रहे थे, तब उन्हें आसमान में टिमटिमाते हुए तारे बहुत खूबसूरत लगे, जो पेड़ों पर लगे होने का आभास दे रहे थे। उन्हें यह दृश्य इतना भाया कि वह पेड़ की डाल तोड़कर घर ले जाए और उसे तारों से सजा दिया।
18वीं शताब्दी तक क्रिसमस ट्री बेहद पॉप्युलर हो चुका था। इंग्लैंड में 1841 में राजकुमार पिंटो एलबर्ट ने विंजर कासल में क्रिसमस ट्री को सजावाया था, जिसे नार्वे की महारीनी ने प्रिंस को उपहार स्वरूप दिया था। उसने पेड़ के ऊपर एक देवता की दोनों भुजाएं फैलाए हुए मूर्ति भी लगवाई, जिसे काफी सराहा गया। क्रिसमस ट्री पर प्रतिमा लगाने की शुरुआत तभी से हुई। 19वीं शताब्दी तक क्रिसमस ट्री उत्तरी अमेरिका तक जा पहुंचा और वहां से कुछ ही दिनों में इसने पूरी दुनिया में अपनी जगह बना ली।
क्रिसमस ट्री की उत्पत्ति को लेकर कई किवदंतियां हैं। क्रिसमस ट्री की कथा है कि जब महापुरुष ईसा का जन्म हुआ तो उनके माता-पिता को बधाई देने आए देवताओं ने एक सदाबहार फर को सितारों से सजाया। कहा जाता है कि उसी दिन से हर साल सदाबहार फर के पेड़ को 'क्रिसमस ट्री' प्रतीक के रूप में सजाया जाता है।
क्रिसमस ट्री लगाने की शुरुआत ब्रिटेन के संत बोनीफस ने सातवीं शताब्दी में की। उन्होंने त्रियक परमेश्वर पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा की प्रतीकात्मकता दर्शाने के लिये त्रिकोणीय लकड़ी को लोगों के सामने रखा। यह लकड़ी फर वृक्ष की थी। ऐसा माना जाता है कि संत बोनिफेस इंग्लैंड को छोड़कर जर्मनी चले गए। जहां उनका उद्देश्य जर्मन लोगों को ईसा मसीह का संदेश सुनाना था। इस दौरान उन्होंने पाया कि कुछ लोग ईश्वर को संतुष्ट करने हेतु ओक वृक्ष के नीचे एक छोटे बालक की बलि दे रहे थे। गुस्से में आकर संत बोनिफेस ने वह ओक वृक्ष कटवा डाला और उसकी जगह फर का नया पौधा लगवाया, जिसे संत बोनिफेस ने प्रभु यीशु मसीह के जन्म का प्रतीक माना और उनके अनुयायियों ने उस पौधे को मोमबत्तियों से सजाया। तभी से क्रिसमस पर क्रिसमस ट्री सजाने की परंपरा चली आ रही है।
इसके अलावा इससे जुड़ी एक और कहानी मशहूर है, वह यह कि एक बार क्रिसमस पूर्व की संध्या में कड़ाके की ठंड में एक छोटा बालक घूमते हुए खो जाता है। ठंड से बचने के लिए वह आसरे की तलाश करता है, तभी उसको एक झोपड़ी दिखाई देती है। उस झोपड़ी में एक लकड़हारा अपने परिवार के साथ आग ताप रहा होता है। लड़का इस उम्मीद के साथ दरवाजा खटखटाता है कि उसे यहां आसरा मिल जाएगा। लकड़हारा दरवाजा खोलता है और उस बालक को वहां खड़ा पाता है। उस बालक को ठंड में ठिठुरता देख लकड़हारा उसे अंदर बुला लेता है। उसकी बीवी उस बच्चे की सेवा करती है। उसे नहला कर, खाना खिलाकर अपने सबसे छोटे बेटे के साथ उसे सुला देती है। दरअसल, वह बच्चा एक फरिश्ता था। जब सुबह हुई, तो उस लड़के ने जंगल में लगे हुए फर के पेड़ से एक तिनका निकाला और लकड़हारे को दे दिया। बालक ने लकड़हारे से कहा कि वह इसे जमीन में दबा दे। अगले साल क्रिसमस पर इस पेड़ में फल आएंगे। लकड़हारे ने वैसा ही किया। एक साल बाद वह पेड़ पर सोने के सेब और चांदी के अखरोट से भर गया। यह था वो क्रिसमस ट्री, जिसे आज भी हम सभी सजाते हैं।
कहा जाता है, यूरोप में पहले ‘यूल’ नामक पर्व मनाया जाता था, जो अब बड़ा दिन के उत्सव में घुल मिल गया है। इस त्योहार में पेड़ों को खूब सजाया जाता था। सम्भवत: इसी से क्रिसमस ट्री की प्रथा चल पड़ी।
कुछ लोगों का कहना है कि ईसा पूर्व से ही क्रिसमस ट्री की परम्परा कायम थी। सदाबहार फर वृक्ष के ईसा पूर्व भी पवित्र माना जाता था। मिस्र के लोग शरद ऋतु में सबसे छोटे दिन का त्योहार मनाते थे। इसदिन वे खजूर के पत्ते अपने घरों में लाते थे, जो जीवन का मृत्यु पर विजय का प्रतीक था। रोम के निवासी शनि त्योहार के दिन हरे पेड़ की शाखाओं को हाथ में लेकर ऊपर उठाते थे और त्योहार में शामिल होते थे।
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