Tuesday, January 13, 2015

रब की मेहर होती हैं बेटियां

रब की मेहर होती हैं बेटियां

हमारे समाज में बेटे की बहुत अहमियत है। उनके जन्म पर ढेरों खुशियां मनाई जाती हैं। यहां तक कि कुछ त्योहार विशेष रूप से लड़कों के सम्मान में ही मनाए जाते हैं। लड़के के जन्म की पहली लोहड़ी हो या बेटे की शादी की पहली लोहड़ी, लोग लोहड़ी का त्यौहार दुगने उत्साह के साथ मनाते हैं जबकि प्रचलित लोककथा के अनुसार यह त्यौहार दो गरीब लड़कियों की शादी से संबंधित है। हमारी रूढ़िवादी मानसिकता देखिये कि हम रिश्तों में मधुरता एवं प्रेम के प्रतीक लोहड़ी के इस त्यौहार को सिर्फ़ लड़को के जन्म और शादी की खुशी में ही मनाते हैं। लड़कियों के जन्म की खुशी यहां नहीं मनाई जाती है, क्योंकि लड़कियों को लड़कों से कम आंका जाता है। हालांकि प्राचीन शास्त्रों में नारी को पूजनीय कहा गया है, मगर समाज ने उसे कभी वो दर्जा नहीं दिया। क्रूरता की हद तो यह कि लड़की को जन्म लेने से पहले कोख में ही खत्म कर दिया जाता है।


बेटे को वंश का वाहक माना जाता है। सदियों से पुत्र ही माता-पिता की देखभाल करता रहा है और आज भी स्थिति लगभग ऐसी ही है। इसी कारण अपने बुढ़ापे को सुरक्षित रखने के लिए लोगों में पुत्र की चाहना रहती है। बेटी के प्रति भेदभाव समाज के विकास को प्रभावित करता है। बेटों की चाहत में कोख में ही कन्या भ्रूण हत्या करने वाले मां बाप से पूछ कर देखें कि क्या उनके सपूत बुढ़ापे में उनका सहारा बनते हैं। क्या मां बाप के बाद सभी बहनों के लिए उनके मायके के दरवाज़े हमेशा खुले रहते हैं? अगर इस बारे में सर्वे कराया जाए तो परिणाम उन महिलाओं के लिए निराशाजनक  ही होंगे जो बेटों के लिए बेटियों को पैदा होने से पहले ही मार देती हैं या उनके जन्म के बाद उन्हें मरने के लिए सड़कों पर या कूड़े के ढ़ेर में फेंक देती हैं। इसके अनेक उदाहरण आप सबके पास भी होंगे जब बूढ़े मां-बाप का साथ बेटियों ने ही दिया जबकि बेहद लाड-प्यार से पाले-पलोसे उनके बेटों ने उन्हें दर-दर भटकने के लिए घर से बाहर कर दिया।


सामाजिक बदलाव और जागरुकता के चलते अब लोगों की सोच में भी बदलाव आ रहा है। वे अब बेटी के महत्व को समझने लगे हैं। बेटियों के बिना घर और समाज अधूरा है। बेटी ना हो केवल बेटे ही हों यह सोच बदल रही है। अब पुत्रियां माता-पिता की सेवा कर रही हैं। पुत्री के रूप में बहू ही सेवा करती है। अब बेटी के जन्म पर भी लोग जश्न मनाने लगे हैं। समाज में भ्रूण हत्या जैसी कुरीति को खत्म करने के मकसद से लोहड़ी को एक अलहदा ढंग से मनाया जाने लगा है। अब धीयां दी लोहड़ी उत्सव के तौर पर मनाई जाने लगी है। आज आलम यह है कि लोग लड़कों की लोहड़ी कम व लड़कियों की लोहड़ी सामूहिक तौर पर ज्यादा मनाने लगे हैं।  इस तरह के प्रयत्न लड़कियों को समाज में बनता सम्मान दिलाने के लिए कारगार सिद्ध होंगे, वहीं दूसरी तरफ कन्या भ्रूण हत्या व दहेज जैसी सामाजिक बुराईयों को भी खत्म करेंगे।


 "धीयां दी लोहड़ी" उन लोगों को शीशा दिखाती है, जो आज भी बेटी और बेटे के जन्म में फर्क समझते हैं। लड़का-लड़की में भेद करना खुद को धोखा देना है, क्योंकि आज लड़कियां  हर क्षेत्र में अपनी काबलियत का लोहा मनवा चुकी हैं, वे लड़कों को हर क्षेत्र में पछाड़ रहीं हैं। भ्रूण हत्या रोकनी है तो कन्यायों को समाज में लड़के से बढ़कर सम्मान देना होगा। बेटे के लिए बहू बन कर किसी दूसरे की बेटी आपके घर में आएगी और आपकी बेटी किसी के घर दुल्हन बन कर जाएगी। इसलिए कन्या भ्रूण की कोख में ही हत्या ना करें उसे दुनिया का उजाला देखने दें, वो आज आपके घर की रौनक तो कल किसी के घर के आंगन की शोभा बनेगी।

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